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कविता: अइमु सजधज के

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आइल हे सावन चारो ओर कारि कारी रे बदरिया
झुम झुम खुब बरसो री नखरारि कारि रे बदरिया
गरजो रि खुब तुम बरखा बुंदा बुंदा आज बनठन के
बरखा मे तुम भिजो उ झरि बनु बनु लागल मोहके
मुड़िया महति टप्प टप्प चुना पानी बनु लागल मोहके

गोरिक लचक लचकदार कम्मर के आंगिया बनु बनु
कि सावन मे बरखाहा किंचा बन गोरिक गोड लिटकाऊँ
खुलेे अकास जइसे खुले दिल मोर जाबे सजनिक ओर
दिल लगे पियारिन में कि जइसे बनमा नाचे मुल्ला मोर
मन मोहिनि रूप रागिनि चलाए तिर करदे घायल सोर

हे सावन के महिना किंचा कांदा विसराके होवे चित चोर
सजनि अइहें लगा नहँगा अंगिया पिछाउरा करिया होड़
अइमु सजनि पगडि, भिगबा, गतिया, पउला सजधज के
तुम गइयो सजना मइ झुला दहमु प्यार के झुला चारोओर
आइल बहार हे तुम ति जाने कतना प्यार हे मानो तो प्यार
सखि सावन ऋतु प्यार के बगिया मे दिल के झुला पडल हे

✍️अर्जुन सिंह कठरिया
पहलमानपुर, कैलाली

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